यह राम रहीम की धरती रही है, गुरमितों की नही। इस गुरमीत के कारण राम-रहीम की संस्कृति इतिहास हो रही है। गंगा-यमुनी तहजीब और राम-रहीम की संस्कृति पर यह बड़ा खतरा है। बहाना कुछ भी हो ये शब्द तो अब कलंकित हो ही गए हैं। इस नई सत्ता को ना अब राम चाहिए ना ही रहीम। इन्हें केवल भीड़ चाहिए। इसी भीड़ ने कल राम के लिए पंचकोसी को जलाया था आज तो रहीम के लिए पंचकूला को जलाया।
90 के दशक के बाद बाबा बाजार में एक नई गति आयी थी। सरकार और समाज से मिले असुरक्षाबोध ने लोगो को बाबाओं की शरण में जाने को अभिशप्त किया था । बाबा ही जीवन के अंतिम सहारा होते गए। प्रवाचकों और धर्मगुरुओं की अचानक बाढ़ सी आ गयी। गुजरात इसका केंद्र बना। यहां तो बापू को मारकर बापू जिंदा होते रहे। भूत भाग्य भगवान और भांटगिरी छाया रहा। विज्ञान और तकनीकि के विकास के समानांतर स्वर्ग मोक्ष और तंत्र ताबीज को हमने तरजीह दी। व्यवस्था अपनी विफलता को ढकने के लिए समाज को भाग्यवाद को ओर ढ़केल दिया।कौन थे और हैं ये शातिर लोग। क्या गुरमीत इसी विचार कोख की नजायज पैदाईश नही हैं?
मीडिया के तमाम उपदानों ने भी इन आश्रमों का आश्रय लेना शुरू किया। कल बेशर्म मीडिया एक तरफ पंचकूला दिखा रही थी तो दूसरी ओर निर्मल का दरबार सजा रही थी। सड़कों पर हवन होता रहा। देश अपनी आहुति देता रहा। वाह रे भारत की यह यज्ञ-संस्कृति ! दर्जनों लोगों की बलि इस कथित यज्ञ में दे दी गई।
इन मरते समर्थकों का हम क्लास पहचानने की कोशिश करते रहे। जिन हाथों में लैपटॉप चाहिए था उन हाथों में दिखती लाठियां हमें आईना दिखाती रही। पंचकूला की सड़कों पर लेटी महिलाओं को उस साध्वी का पत्र नही पढ़ाया जा सका। पंचकूला की उस सड़क पर युद्धरत कोई भी बहन बेटी इस पत्र को नही पढ सकी जिसमें बाबा द्वारा यौन- शोषण की कहानी लिखी थी। खट्टर बेटी बचाने के कट्टर नही कुख्यात समर्थक साबित हुए हैं। बेटी बचाने के लिए इसी बाबा के पास अपनी मौजूदगी भी दर्ज करते रहे। इस बलात्कारी गुरमीत ने बीजेपी को विजयी बनाया। भाजपा की जीत के लिए बेटियों की बोटियाँ काम आ गयी। तबाह हुई बेटियों की कीमत पर भाजपा की वाहवाह हुई। भाजपा ने गुरमीत के पास अपना ‘डेरा’ डाला और ‘सच्चा सौदा’ किया। सत्ता के इन्ही सौदागरों ने गुरमीत को सहलाया और इस काम के लिए उकसाया। 20 साल की सजा तो इन्हें भी मिलनी चाहिए जो इस अपराध के शागिर्द रहे हैं। भाजपा कांग्रेस कैसे बच सकती हैं। जिन तीस लोगों पर गोलियां चली कुछ गोलियां तो इधर भी चलनी चाहिए थी ?
गुरमीत के पैसे पर जो मीडिया टीआरपी बटोरी उन मालिकों और संपादकों की भी खोज होनी चाहिये। इस गुरमीत कांड के बहुत किरदार और गुनहगार हैं। इनकी पहचान जरूरी है।
सवालों के बोझ से दबे देश के नौजवान अपने कंधों पर कांवर उठाये घुम रहे हैं। इनके कंधों पर देश का भविष्य नही है। बाबाओं और व्यवस्था का बोझ है। दलित, वंचित, पिछड़े, बेकार और बीमार लोगों को जब मूर्तियों के पीछे नाचते कूदते देखता हूँ तो बहुत अफसोस होता है।
इस कथित न्यायिक-सक्रियता पर भी मुझे शंका है। यह न्याय व्यवस्था की फेस लॉन्ड्रिंग है। यह भूखी जनता को भरोसा दिलाने का नया खेल है। इस भरोसावाद पर ही भारत का भविष्य टिका है। लोकतंत्र के साथ भी रोज छलात्कार हो रहा है। इसके खिलाफ आवाज बुलंद करने वाले जेल के भीतर है। न्याय यहां निष्क्रिय है। यहाँ कोर्ट सुगबुगाती भी नही।
एक बात और है इस असुंदर कांड के पीछे कि जिन बाबा-बाजारों को ब्राह्मणों ने हजारों साल तक जिंदा रखा उन्हें नव ब्राह्मणवादियों ने कुछ ही साल में चौपट कर दिया। इन दिनों कोई भी ब्राह्मण भगवा धारण नही करते। इस भगवा रंग को जब से छोटी जाति के लोगों ने धारण किया तब से यह बदरंग होता। छोटी जाति के लोग कोई भी सत्ता चाहे राजसत्ता हो या धर्मसत्ता हो उसे चलाने की स्वभाविक स्थिति इनकी नही है। रामपाल हो या रामरहीम का खेल आखिर क्या साबित कर रहा है? चम्बल बनती संसद में बैठे गिरोहों के सरदार गैंगवार को अंजाम दे रहे है। दल आखिर सियासी गिरोह ही तो हैं गुरमीत इन्ही दालानों के आशादीप हैं।
आरक्षण की व्यवस्था समाप्त हो रही है
देश का ध्यान गुरमीत की ओर है। इसी बीच सारे जन विरोधी गेम को स्वरूप दे देने की तैयारी है।