अखिलेश अखिल, राजनीतिक संपादक, स्वराज खबर | भविष्य की राजनीति जिस तरफ जाती दिख रही है उस आधार पर कहा जा सकता है कि देश की दलित राजनीति का कमान हाथ होगा? भारतीय राजनीति के शिखर पर देखते देखते दो दलित युवा चेहरे जिग्नेश मेवानी और चंद्रशेखर की छवि जिस अंदाज में भारतीय राजनीति को मथ रही है और जिस तरह देश के युवा दलितों का रुझान बसपा से अलग होकर जिग्नेश और चंद्रशेखर के प्रति बढ़ा है उससे साफ़ हो गया है कि आगामी चुनाव में दलित राजनीति के वाहक कोई और होंगे। अभी राष्ट्रपति उम्मीदवार को लेकर सत्ता पक्ष और विपक्ष दलित चेहरों पर जो दावं लगाता दिख रहा है उसके पीछे की राजनीति के मूल में सिर्फ सिर्फ दलित राजनितिक अजेंडा ही है।
देश का अगला राष्ट्रपति कौन? एनडीए उम्मीदवार रामनाथ कोविंद या फिर विपक्ष की उम्मीदवार मीरा कुमार? सच तो यही है कि चुनाव जितने के तमाम गणित कोविंद के पक्ष में है। उनकी जीत सुनिश्चित मानी जा रही है। ऐसे में सवाल उठता है कि फिर विपक्ष ने मीरा कुमार को क्यों उतारा? दूसरा सवाल ये भी है कि अगर एनडीए ने दलित उम्मीदवार को मैदान में खड़ा किया तो विपक्ष भी दलित उम्मीदवार पर ही भरोसा क्यों किया? क्या दलित के अलावा कोई और नहीं दिख रहा था? राजनितिक नजरिये से देखें तो साफ़ है कि दलितों को लेकर सत्ता और विपक्ष परेशान और बदहाल भी है। दोनों परेशान भी हैं। एनडीए की नजर जहां माइनस जाटव सभी दलितों पर टिकी है वही विपक्ष की नज़रों में दलित वोट का बांटना भविष्य की राजनीति को खतरे में डालने जैसा है। कह सकते हैं कि 2019 की राजनीति दलितों के इर्द गिर्द ही होनी है क्योंकि पिछड़े वोट बैंक में बीजेपी की घुसपैठ पूरी तरह से हो गयी है। देश के अधिकतर पिछड़ी राजनीति आज बीजेपी के पाले में खड़ी दिख रही है और इसके प्रमाण 2014 के लोक सभा चुनाव से लेकर यूपी चुनाव दिख रहे हैं।
लेकिन इस राजनीति के क्या कहने? एक तरफ दलित चेहरे को देश के सबसे सर्वोच्च पद पर बैठाने की राजनीति चल रही है, वहीँ दूसरी तरफ देश के तमाम तरह के दलित अत्याचार की ख़बरें भी जनमानस को उद्वेलित कर रही हैं। तीसरी तरफ देश के कई सूबों में दलितों का एक गैर राजनितिक मूवमेंट भी चलता दिख रहा है जो सत्ता और विपक्ष की राजनीति को चुनौती भी दे रहा है। साफ़ है कि दलितों की हालत भले ही नहीं सुधरी हों लेकिन दलितों को लेकर वर्तमान राजनीति चरम पर है। दलितों के साथ भेदभाव की राजनीति भी चलेगी और दलितों के आगे राजनितिक परिक्रमा भी होगी। यही आज का राजनितिक सच है। ज़रा उन ख़बरों पर गौर करें जो लगभग हर दिन हमारे सामने आती है। कही दलितों का धर्म परिवर्तन होता दिखता है तो कही दलितों पर कहर का खेल। फिर दलित आंदोलन भी। सभी राजनितिक दल इसे देख रहें हैं और उसकी राजनीति को भी समझ रहे हैं। इसी राजनितिक समझ की दें है सत्ता और विपक्ष की तरफ से अपने अपने राष्ट्रपति पद के दलित उम्मीदवार।
राष्ट्रपति पद के लिए दो दलित उम्मीदवारों का मुकाबला ऐसी ही खबरों का नतीजा है। सवाल ये है कि अगर ऊना और सहारनपुर जैसे कांड नहीं होते तो क्या रामनाथ कोविंद राष्ट्रपति चुनाव के लिए बीजेपी के उम्मीदवार होते? अगर रामनाथ कोविंद बीजेपी के उम्मीदवार नहीं होते तो क्या मीरा कुमार विपक्ष की उम्मीदवार होतीं? शायद नहीं। इसका मतलब ये है कि दलित राजनीति में आई हलचल सचमुच इतनी बड़ी है कि राष्ट्रीय राजनीति की धारा मोड़ दे।
सहारनपुर और ऊना की घटना कोई मामूली घटना नहीं है। दोनों इतनी बड़ी घटना है कि देश की राजनितिक छितिज पर इन्ही दो घटनाओं के गर्भ से दो बड़े युवा नेता की पहचान बनती है। ये दोनों दलित युवा नेता जिग्नेश मेवानी और चन्द्रशेखर रावण हैं जो दलित समाज के उत्पीड़न के विरोध में सामने आये हैं। कहने के लिए ये दोनों दलित युवा नेता हैं लेकिन इनके वाद ,विवाद और संवाद से साफ़ हो गया है कि अब दलित राजनीति के वे ठकेदार नहीं रहेंगे जो सालों से दलितों का वोट लेकर दलितों पर जुल्म ढाते रहेंगे। यह बात और है कि सहारनपुर की घटना के बाद भीम आर्मी के नेता के तौर पर हलचल मचाने वाले चंद्रशेखर भले ही अभी जेल में बंद हैं लेकिन इस नेता की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आयी है। उधर ,यूपी सरकार चंद्रशेखर और उनके सहयोगियों को असामाजिक तत्व बता रही है तो दूसरी तरफ मायावती भीम आर्मी को आरएसएस का संगठन करार दे चुकी हैं। यह एक अलग तरह की आतंरिक राजनितिक द्वंद्व है। मायावती जो कह रही हैं उसमे कितना दम है इसे अभी परखने की जरुरत होगी लेकिन जिग्नेश और चंद्रशेखर फिलहाल संघ और बीजेपी की राजनीति के विरोध में झंडा बुलंद किये हुए है। जानकार मानते हैं कि कांशी राम ने जिस मनुवाद के विरोध में बसपा को राजनितिक धार दी थी ,मायावती ने अपने सोशल इंजीनियरिंग के खेल में कांशी राम की राजनीति को तिलांजलि दे दी है। ऐसे में जिग्नेश और चंद्रशेखर की संघ विरोधी राजनीति बीजेपी और संघ को डरा भी रही है और भविष्य की बदलती राजनीति के तरफ इशारा भी कर रही है। बीजेपी का यही डर उसे दलितों के जख्म पर मरहम लगाने के लिए प्रेरित कर रहा है। दलित कोविंद के उम्मीदवार बनाने के पीछे की राजनीति यही हो सकती है। बीजेपी की चिंता की सबसे बड़ी वजह यही है। एक वक्त था जब बीजेपी को ब्राह्मण, बनिया पार्टी कहा जा था लेकिन बीजेपी ने धीरे-धीरे इस छवि को बदला है। आज पिछड़ों का सबसे बड़ा तबका बीजेपी के साथ है। संघ से जुड़े संगठनों के जरिए बीजेपी ने दलितों के बीच भी लगातार काम किया। इसका असर 2014 के चुनाव में देखने को मिला। आम तौर पर बीजेपी को 10-12 फीसदी दलित वोट मिलते थे लेकिन 2014 के चुनाव में ये वोट दोगुने से भी ज्यादा हो गये और बीजेपी 84 में से 40 रिजर्व सीटें जीतने में कामयाब रही। बीजेपी के लिए दलित जनाधार खिसकने का सीधा मतलब है 2019 के मंसूबों पर असर पड़ना।
दूसरी तरफ अपना सब कुछ गवां चुका विपक्ष के पास अब खोने के लिए बचा ही क्या है? विपक्ष लिए तो दलितों की नाराजगी किसी उम्मीद से कम नहीं। विपक्ष को लगता है कि अगर दलित राजनीति गर्म होगी और किसानों के आंदोलन तेज होंगे तो देश में एक ऐसा सरकार विरोधी माहौल बन सकता है, जो 2019 की लड़ाई में मददगार साबित हो। देश में चल रहा मौजूदा दलित आंदोलन मूल रूप से एक वैचारिक लड़ाई है। आंदोलनकारी कह रहे हैं कि आरएसएस की ब्राह्मणवादी सोच दलितों के उत्पीड़न के लिए जिम्मेदार है और ब्राह्मणवादी व्यवस्था को कमजोर किये बिना दलितों का भला नहीं होने वाला है। इस दावे को मजबूत करने के लिए सामूहिक धर्मांतरण भी किये जा रहे हैं। बीजेपी के लिए यह एक दुविधा वाली स्थिति है। वह दलितों के साथ किसी भी तरह का वैचारिक टकराव मोल नहीं लेना चाहती क्योंकि अगर बहुजनवाद बनाम ब्राह्मणवाद का सवाल राष्ट्रीय विमर्श बन गया तो इसके दीर्घकालिक नतीजे पार्टी और संघ के लिए खतरनाक हो जाएंगे। विचारधारा के सवाल को बीजेपी प्रतिनिधित्व के जरिए हल करना चाहती है। एक दलित को राष्ट्रपति बनाकर यही काम अब बीजेपी दलितों के साथ करना चाहती है जो पहले वह पिछड़ों के साथ कर चुकी है। रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाने का सीधा मतलब दलितों तक यह संदेश पहुंचाना है कि सरकार उन्हे सत्ता में बराबरी का भागीदार बनाना चाहती है। ऐसे में एक गैर-जाटव दलित को राष्ट्रपति बनाकर बीजेपी दलितों की एकता में भी सेंध लगाने के फिराक में है। तय मानिये कोविंद अगर राष्ट्रपति बन भी जाते हैं तो इसका मतलब यह कतई नहीं कि देश के दलितों की हालत बेहतर हो गयी है। लेकिन बीजेपी को सन्देश तो यही देना है।
भविष्य की राजनीति पर नजर रखें तो साफ़ हो जाता है कि दलित विमर्श की राजनीति ख़त्म नहीं होने वाली। लेकिन इसके साथ यह भी साफ़ है कि आगामी चुनाव में बसपा और कांग्रेस को इन दलित आंदोलनों का कोई लाभ होता नहीं दिखता। दोनों दलों में दलितों का विश्वास पहले से कम हुआ है। ऐसे में सवाल यह भी है कि क्या दलित राजनीति को हांकने के लिए कोई नयी दलित पार्टी की जरुरत होगी या फिर जो दलित आंदोलन होते दिख रहे हैं वे समय के साथ ख़त्म हो जाएंगे।