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Home राजनीति

महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन का ग़ुनाहगार कौन?

Swaraj khabar by Swaraj khabar
November 14, 2019
in राजनीति
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Maharashtra Politics
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महाराष्ट्र ने तो 24 अक्टूबर को खंडित जनादेश दिया नहीं, तो फिर उसे लोकप्रिय सरकार पाने के संवैधानिक हक़ से दूर रखने का ग़ुनाहगार कौन है? बीजेपी या शिवसेना या फिर दोनों! लेकिन संविधान के संरक्षकों ने क़सूरवार को सज़ा देने के बजाय बेक़सूर जनता पर ही एक और सितम का रास्ता चुना! संविधान की दुहाई देकर केन्द्र सरकार ने महाराष्ट्र को अपनी मुट्ठी में कर लिया। हालाँकि, सभी जानते हैं कि राष्ट्रपति शासन के विकल्प को हड़बड़ी और खिसियाहट में चुना गया है। इसीलिए बीजेपी के सिवाय सबकी ज़ुबाँ पर बस, एक ही सवाल है यदि नये दावेदारों को थोड़ा और वक़्त दे दिया जाता तो कौन सा आकाश टूट पड़ता?

यदि माननीय संविधान साहब, इंसानों की तरह भावनाएँ ज़ाहिर कर सकते, तो अभी दहाड़े मारकर रो रहे होते! स्पष्ट जनादेश के बावजूद महाराष्ट्र में सरकार नहीं बनने की वजह से बेचारे संविधान महोदय बीमार पड़ गये। तेज़ सियासी बुख़ार की तपिस के आगे घरेलू उपचार और फ़ैमिली डॉक्टरों के इलाज़ से कोई फ़ायदा नहीं हुआ। मर्ज़ बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की। सबसे बड़े डॉक्टर बीजेपी ने जब मरीज़ के आगे हाथ खड़े कर दिये तो रस्म-अदायगी के नाम पर गवर्नर साहब ने शिवसेना और एनसीपी जैसे अन्य राजवैद्यों को बुलाया। लेकिन इनकी दवाईयाँ असर दिखातीं, इससे पहले ही उनका सब्र टूट गया। आनन-फ़ानन में राष्ट्रपति शासन लग गया, जो एक नये संक्रमण की तरह है। अब सवाल ये है कि बीजेपी का सब्र क्यों जबाब दे गया?

आप चाहें तो बीजेपी से हमदर्दी जता सकते हैं! हालाँकि, शिवसेना ने जैसे अभी बीजेपी को गच्चा दिया है, बिल्कुल वैसा ही सलूक बीजेपी ने जम्मू-कश्मीर में महबूबा मुफ़्ती के साथ किया था। जिस नापाक राह पर अभी शिवसेना चल रही है, उसी राह पर चलकर नीतीश कुमार ने बीजेपी से दोस्ती की थी। विधायकों की जिस ख़रीद-फ़रोख्त को अभी लोकतंत्र और संविधान के लिए पतित आचरण बताया जा रहा है, उसे ही थोड़े समय पहले कर्नाटक और गोवा में अपने शबाब पर देखा गया था। लिहाज़ा, संवैधानिक सुचिता और जनादेश से धोखाधड़ी की दुहाई या तो महज घड़ियाली आँसू हैं या फिर दिखाने के दाँत।

राजनीति आज मौकापरस्ती का दूसरा नाम है। सबको पहले किसी भी क़ीमत पर टिकट, फिर वोट और आख़िर में सत्ता चाहिए। अब ज़्यादातर नेताओं, सांसदों या विधायकों का कोई वैचारिक आधार नहीं है। विचारधारा और मूल्य-सिद्धान्त की बातें सिर्फ़ तभी होती हैं, तब माज़रा ‘अंगूर खट्टे हैं’ वाला हो। वर्ना, सबको सत्ता चाहिए। अब यही राजनीति है। एक पार्टी में ज़िन्दगी ग़ुजार देने वाले जब दलबदल करते हैं तो यदि उन्हें जनता का डर नहीं सताता तो 30 साल पुराने दोस्ती को तोड़ लेने वालों को भला क्यों डर लगेगा!

बीजेपी की दशा उस भूखे जैसी है, जिसके सामने से उसके 30 साल पुराने दोस्त शिवसेना ने ही थाली खींच ली। कोई नहीं जानता कि 50-50 फ़ॉर्मूले को लेकर कौन सच्चा है और कौन झूठा? वोट माँगने से पहले महाराष्ट्र की जनता को तो किसी ने बताया नहीं कि भीतरख़ाने क्या खिचड़ी पकी थी? अब आलम ये है कि शिवसेना अपना घर बदलकर भी सत्ता में तो रहेगी ही। एनसीपी और काँग्रेस की भी लाटरी लग गयी। जनादेश था कि विपक्ष में रहो। लेकिन वक़्त ने ऐसी करवट ली कि आज सत्ता दरवाज़े पर आ खड़ी हुई है। ये बिहार का उलट है। बिहार में बीजेपी को विपक्ष में बैठने का जनादेश मिला था। लेकिन वक़्त के करवट बदलने से वो सत्ता में है। किस्मत ने साथ दिया तो हरियाणा में विरोधी को पटाकर सत्ता बचा ली। महाराष्ट्र वाली कुंडली में अभी राजयोग नहीं है।

बीजेपी की खिसियाहट को समझना मुश्किल नहीं है। चाल-चरित्र-चेहरा तो बीते ज़माने की बातें थीं। आज आलम ये है कि शिवसेना ने उसके सामने से सजी हुई थाली खींच ली। उसका खिसियाना, छटपटाना और झुँझलाना स्वाभाविक है। ऐसी दशा में कोई और भला करेगा भी तो क्या? बेशक़, खिसियाएगा। दाँत पीसेगा। गुस्से से तमतमा उठेगा। आँखें लाल-पीली करेगा। प्रतिशोध की भावना से भर उठेगा। वश चले तो सामने से थाली खींचने वाले को कच्चा चबा जाए। ये तो मुमकिन था नहीं, लिहाज़ा आव देखा न ताव और लगा दिया राष्ट्रपति शासन। कोई चारा ही नहीं बचा था। विधानसभा भंग हो नहीं सकती। बहुमत के बावजूद फड़णवीस की कुर्सी बची नहीं। एनडीए से शिवसेना निकल गयी सो अलग। यानी, ‘चले थे हरि भजन को ओटन लगे कपास’ या ‘दुविधा में दोनों गये, माया मिली न राम’!

अब कुछ दिनों तक सुप्रीम कोर्ट में ज़ोर-आज़माइश होगी। फिर विधानसभा में ही शक्ति-परीक्षण का आदेश आएगा। इस दौरान शिवसेना, एनसीपी और काँग्रेस तीनों मिलकर न्यूनतम साझा कार्यक्रम यानी कॉमन मिनिमन प्रोग्राम बना लेंगे। तय होगा कि कितने-कितने वक़्त के लिए किसका-किसका नेता मुख्यमंत्री बनेगा, किसे कौन-कौन सा मंत्रालय मिलेगा और किसे विधानसभा अध्यक्ष का पद? सत्ता की मलाई के बन्दरबाँट का फ़ॉर्मूला तैयार होते ही, वही हस्तियाँ राष्ट्रपति शासन को हटाएँगी, जिन्होंने अभी इसे महाराष्ट्र पर थोपा है। बीजेपी ने यदि अपनी खिसियाहट और झुँझलाहट पर काबू पा लिया होता तो तमाम नौटंकीबाज़ी से बचा जा सकता था। उसके विवेक को तो अहंकार ने पहले ही खा लिया था।

बीजेपी के पास अब भी धोबी-पछाड़ वाला एक दाँव बचा हुआ है। वो चाहे तो शिवसेना को ऐसा लालच देकर उसकी प्रतिष्ठा को चोट पहुँचा सकती है कि ‘अरे भाई उद्धव-आदित्य, छोड़ो गिले-शिकवे। रूठना छोड़ो और आओ तुम्हीं मुख्यमंत्री बन जाओ। हम हों या तुम, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। हम दोस्ते थे और दोस्त ही रहेंगे। हमारे रिश्ते तो बाप-दादा के ज़माने के हैं। रोटी-बेटी के सम्बन्ध ऐसे थोड़े ही टूटा करते हैं। अरे, जहाँ चार बर्तन होते हैं वहाँ आपस में टकराते भी हैं। अब नाराज़गी छोड़ो और घरवापसी करो। आख़िर, जनादेश भी तो हमारी दोस्ती को ही मिला है।’

ये बातें काल्पनिक भले लगें लेकिन असम्भव नहीं हैं। राजनीति को यूँ ही ‘सम्भावनाओं का खेल’ नहीं कहा गया। खेल का एक हथकंडा ये हो सकता है कि भले ही शिवसेना-एनसीपी-काँग्रेस की तिकड़ी सरकार बना ले, लेकिन बीजेपी ख़ामोश नहीं बैठे। पूरी ताक़त ने इन पार्टियों को तोड़ने और इनके विधायकों को ख़रीदने की वैसी ही मुहिम छेड़ दे, जैसा उसने कर्नाटक, गोवा और उत्तर पूर्वी राज्यों में किया। अन्य राज्यों में भी विरोधी पार्टियों से आये तमाम नेताओं से बीजेपी अटी पड़ी है। इसीलिए, महाराष्ट्र में भी ग़ैर-बीजेपी सरकार उतने दिन ही चल पाएगी, जितने दिन बीजेपी उसे चलने देगी!

Mukesh Kumar Singh

मुकेश कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)

Tags: BJP Shiv SenaMaharashtramaharashtra president ruleMukesh Kumar Singh BlogPolitical DramapoliticsPolitics in Maharashtra
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