साफ़ दिख रहा है कि राज्यों और देश की सरकारों में लॉकडाउन को लेकर भारी ग़लतफ़हमी है। इसीलिए बीते कई दिनों से लॉकडाउन में तरह-तरह की ढील देने या नहीं देने की बातें हो रही हैं। देश को ऐसी गफ़लत से उबारने का सबसे बड़ा दारोमदार इसके शीर्ष नेतृत्व यानी प्रधानमंत्री और उनके सलाहकारों पर है। इन्हें ही जनता को साफ़-साफ़ लॉकडाउन का मतलब समझाना होगा, उसकी सीमाओं के बारे में बताना होगा, उससे जुड़े जोख़िम और पेंचीदगियों और इन्हें लेकर सरकार और समाज की भूमिकाओं के बारे में बताना होगा। समाज के सभी अंगों को जागरूक और प्रशिक्षित करने का बीड़ा उठाना होगा। उम्मीद करनी चाहिए कि प्रधानमंत्री अपने अगले राष्ट्रीय सन्देश में ऐसी हरेक बारीक़ बात का ख़्याल ज़रूर रखेंगे।
लॉकलाउन, आख़िर कब तक?
प्रधानमंत्री को देश को समझाना चाहिए कि लॉकडाउन कोई सज़ा नहीं है, बल्कि कोरोना की आफ़त से ख़ुद को, अपने परिजनों को, अपने दोस्तों और पास-पड़ोस को बचाने की औषधि है। इसी दवा का सेवन हमें तब तक पूरी निष्ठा, ईमानदारी और समर्पण से करना होगा, जब तक कोरोना से संक्रमित लोगों की संख्या यानी इसकी वृद्धि-दर में कमी आना न शुरू हो जाए। क्योंकि जब तक संक्रमण की रफ़्तार काबू में नहीं आएगी, घटना शुरू नहीं होगी, तब तक उन लोगों की सुरक्षा असम्भव है जो अभी तक इससे संक्रमित नहीं हैं। यही वजह है कि भले ही सरकार ने पहली बार में तीन हफ़्ते का लॉकडाउन किया, दूसरी बार में इसे दो हफ़्ते तक बढ़ाने की बात तक़रीबन तय है, लेकिन ऐसा नहीं है कि इसकी मियाद को तीसरी या चौथी बार बढ़ाने की नौबत नहीं आएगी।
लॉकडाउन से मुक्ति की बस एक ही शर्त है – इसे सफलतापूर्वक लागू करके दिखाना। प्रधानमंत्री को चीन के वुहान शहर और हुबेई प्रान्त का उदाहरण देकर 130 करोड़ भारतवासियों को समझाना चाहिए कि कैसे चीन ने शानदार सख़्ती से लॉकडाउन को लागू किया? तभी वो इसे 76 दिनों तक सीमित रख सके। यदि उन्होंने भी भारतीयों की तरह हीला-हवाली दिखायी होती तो उन्हें भी लॉकडाउन को बढ़ाते रहने के लिए मज़बूर होना पड़ता।
प्रधानमंत्री को बताना चाहिए कि चीन के अलावा दुनिया का कोई देश अभी तक लॉकडाउन से क्यों मुक्त नहीं हो पाया है? इससे भारत को क्या सबक लेना चाहिए? प्रधानमंत्री और उनके सलाहकारों को ये समझना होगा कि जनता को सही-सही तथ्यों की जानकारी देना, उसे डराना नहीं, बल्कि चुनौतियों से लड़ने के लिए वैसे ही तैयार करना है, जैसे डॉक्टर अपने मरीज़ों और उनके रिश्तेदारों को जानलेवा बीमारियों के बारे में बताकर उन्हें मानसिक, शारीरिक और आर्थिक रूप से हालात का सामना करने के लिए तैयार करते हैं।
साफ़ हो ‘इवेंट का फ़ोकस’
प्रधानमंत्री की ओर से गाँवों और छोटे-कस्बों में रहने वाले ग़रीबों, मेहनतकश खेतीहरों, प्रवासी मज़दूरों, दिहाड़ी मज़दूरों वाली विशाल आबादी को साफ़-साफ़ समझाया जाना चाहिए कि सरकार और समाज, उनके भोजन-पानी की सारी ज़िम्मेदारी उठाएगी। क्योंकि दिनों-दिन बढ़ रही गर्मी को देखते हुए जल्द ही करोड़ों लोगों का वास्ता पीने के पानी की सालाना किल्लत से भी पड़ने वाला है। प्रधानमंत्री को देश को बताना चाहिए कि इन चुनौतियों का सामना करने के लिए सरकार और समाज की ओर से क्या-क्या किया जा रहा है और क्या-क्या निकट भविष्य में किया जाने वाला है? प्रधानमंत्री को विस्तार से देशवासियों के ‘मन की बात’ करनी चाहिए। वो अपने सम्बोधन को भले ही ‘इवेंट’ बनाएँ, लेकिन ‘इवेंट का फ़ोकस’ साफ़ होना चाहिए।
‘इवेंट का फ़ोकस’ साफ़ नहीं रहा तो लोगों के बीच तरह-तरह की झूठी जानकारियाँ और अफ़वाहें फैलती रहेंगी। कमज़ोर तबके के लोग और ज़्यादा असुरक्षित महसूस करेंगे। सूरत की तरह सड़कों पर उतरकर विद्रोह करने की नौबत फिर नहीं आनी चाहिए कि लोग अपनी जान हथेली पर लेकर और सिर पर कफ़न बाँधकर बाहर निकलने को मज़बूर हों और लॉकडाउन की अब तक उपलब्धियों पर पानी फिर जाए। इसी तरह, प्रधानमंत्री को ऐसी महिलाओं में भी भरोसा जगाना होगा जैसी भिंड में 500-500 रुपये की सरकारी ख़ैरात पाने के लिए अपनी जान की बाज़ी लगाकर बैंकों में उमड़ने को मज़बूर हुई थीं।
जनता में भरोसा जगाना होगा
समाज का सम्पन्न तबक़ा सरकारों के भरोसे कम ही रहता है। लेकिन ग़रीबों के पास सरकार के सिवाय और किसी भी आसरा नहीं होता। इसीलिए ग़रीबों को पक्का भरोसा होना चाहिए कि सरकार उन्हें भूखा नहीं मरने देगी, लॉकडाउन से ठप हुई उनकी कमाई की इतनी भरपाई तो ज़रूर करेगी जिससे वो ज़िन्दा रह सकें। सरकार को किसानों में भी भरोसा जगाना होगा कि उनकी खड़ी फ़सल की कटाई तथा उसे खलिहानों से मंडी तक ले जाने की व्यवस्था वक़्त रहते ज़रूर की जाएगी। लॉकडाउन में ज़्यादातर आर्थिक गतिविधियाँ ठप हैं, लेकिन ग़रीब का हो या अमीर का, पेट तो ठप नहीं रह सकता। लिहाज़ा, अनाज के अलावा फल-सब्ज़ी के उत्पादन को बचाना तथा उसे उपभोक्ताओं तक पहुँचाने का काम सप्लाई चेन के बग़ैर नहीं हो सकता।
सप्लाई चेन से जुड़े वाहनों और मज़दूरों को कोरोना से सुरक्षित रखते हुए काम पर लौटाना बेहद ज़रूरी है। ये चिकित्साकर्मियों, सफ़ाईकर्मियों, बैंककर्मियों, बिजली-पानी-फ़ोन और पुलिस जैसे आवश्यक सेवाओं से जुड़े लोगों से कतई कम नहीं हैं। लॉकडाउन के बावजूद इनका ड्यूटी निभाना जितना ज़रूरी है, उतना ही ज़रूरी इनका सुरक्षित रहना भी है। इसीलिए, सरकार में इस बात का डर भी होना चाहिए कि यदि चीन, इटली, स्पेन, अमेरिका, इंग्लैंड की तरह भारत में कोरोना ने अपना रूप धारण कर लिया तो हमें आवश्यक सेवाओं से जुड़े हरेक तबके लिए निजी सुरक्षा उपकरणों (PPE) की ज़रूरत पड़ सकती है। हमें इसका बेहद व्यापक पैमाने पर उत्पादन करने की क्षमता विकसित करनी ही होगी। प्रधानमंत्री को बताना चाहिए कि इसे लेकर देश की कैसी तैयारियाँ हैं?
प्रवासी मज़दूरों में ये भरोसा जगाना बेहद ज़रूरी है कि उनकी बकाया मज़दूरी को व्यापारियों से ज़रूर दिलवाया जाएगा, लॉकडाउन में उनके राशन-पानी का सन्तोषजनक इन्तज़ाम ज़रूर होगा। उन्हें बेरोज़गारी का मुनासिब हर्ज़ाना देना भी ज़रूरी है। देश भर में फैले प्रवासियों के समुदाय को प्रधानमंत्री को ख़ास ढंग से समझाना होगा कि मौजूदा दौर में किसी को भी उसके घरों तक भेजने की माँग पूरी नहीं की जा सकती, क्योंकि इससे कोरोना का ख़तरा कई गुना बढ़ जाएगा। लॉकडाउन का सत्यानाश हो जाएगा। लाखों लोगों की जान पर बन आएगी। यहाँ तक कि ऐसा करना उनके ख़ुद के लिए और उनके परिवारों के लिए घातक साबित हो सकता है।
ज़रूरी है कुरीतियों पर कड़ा हमला
अब तक के लॉकडाउन के दौरान कई दिल दहलाने वाली और मन को झकझोरने वाली वारदातें सामने आयी हैं। फिर चाहे वो कोरोना की आड़ में फैलायी जा रही साम्प्रदायिकता हो या मेनस्ट्रीम मीडिया का झूठी ख़बरें या जातिगत छुआछूत के सिर उठाने के अफ़सोसनाक किस्से। चिकित्साकर्मियों को कोरोना फ़ैलाने वाला बताकर उनका तिरस्कार करना या उन्हें किराये के मकानों को खाली करने के लिए कहना या उन पर थूकना, ये ऐसे बर्ताव हैं जो ताली-थाली वादन, शंखनाद, अन्धेरा-दीया-पटाखा जैसे आयोजनों पर करारा तमाचा हैं।
इसके लिए प्रधानमंत्री को सख़्त से सख़्त लहजे में चेतावनी देनी चाहिए। यही रवैया उत्तर पूर्व के उन लोगों के मामले में भी होना चाहिए जिन्हें कोरोना कहकर या उन पर थूककर उन्हें अपमानित किया जाता है। प्रधानमंत्री को ऐसे अशोभनीय व्यवहारों को कोरोना से भी ज़्यादा विनाशकारी करार देना चाहिए। इसी तरह, प्रधानमंत्री को राजनीतिक दलों ख़ासकर, बीजेपी और संघ परिवार से जुड़े लोगों को ताक़ीद करनी चाहिए कि वो लॉकडाउन की धज़्ज़ियाँ उड़ाकर अपने राष्ट्र-प्रेम को प्रदर्शित करने के
भोंडे तरीकों से बाज आएँ और जग-हँसाई की हरक़तों से परहेज़ करें।
कुलमिलाकर, ‘प्रधानमंत्री का राष्ट्र के नाम सन्देश’ का उद्देश्य जनता को सही जानकारियाँ देना, उसका मार्गदर्शन करना, उसके मन में उमड़ते-घुमड़ते कौतूहलों का समाधान करने वाला होना चाहिए। राजनीतिक नेतृत्व का कर्तव्य है कि जनता में नया अनुशासन पैदा करे, उनकी मायूसी और चिन्ताओं को दूर करे तथा उसे चुनौतियों और संघर्ष के लिए तैयार करे।

मुकेश कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)