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Home भारत

राजनीति को अपराधियों से बचाये बग़ैर नहीं बचेंगी बेटियां

Swaraj khabar by Swaraj khabar
October 12, 2020
in भारत, समाज
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Rape Case Protest
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हाथरस वाले निर्भया कांड ने एक बार फिर देश के सामने महिलाओं के प्रति होने वाला अपराध सबसे बड़ा मुद्दा बनकर उभरा है। अतीत में भी अनेक बार ऐसा हो चुका है और भविष्य में तब तक होता रहेगा जब तक कि भारतीय समाज ‘राजनीति के अपराधीकरण’ के ख़िलाफ़ हल्ला नहीं बोलेगा, क्योंकि ‘बेटी बचाओ’ के लिए जैसे पुलिस और अदालती सुधारों की ज़रूरत है उसे राजनीति को अपराधियों से मुक्त किये बग़ैर कभी हासिल नहीं किया जा सकता। ऐसा हो नहीं सकता कि हमारे राजनीतिक कर्णधार ख़ुद तो अपराधी हों या आपराधिक पृष्ठभूमि वाले हों और समाज में चप्पे-चप्पे पर मौजूद उनके गुर्गे सदाचारी हों।

सारी दुनिया में यही सिद्धान्त लागू है कि अपराध की जड़ों पर हमला किये बग़ैर उसे मिटाया नहीं जा सकता। लेकिन जब मुख्यमंत्री बनते ही कोई ख़ुद के ख़िलाफ़ दर्ज़ गम्भीर अपराधों के मुक़दमों को पलक झपकते ख़त्म कर देगा तो पुलिस और अदालतों में इंसाफ़ क्या ख़ाक़ होगा! जब सैकड़ों-हज़ारों लोगों के क़त्ल के साज़िशकर्ता राजनीतिक सत्ता के शीर्ष पर होंगे, जब दिनदहाड़े और डंके की चोट पर हुए अपराधों के क़िरदार अदालत से बाइज़्ज़त बरी हो जाएँगी, जब सुप्रीम कोर्ट जैसे न्याय के सर्वोच्च मन्दिर में क़ानून के मुताबिक़ नहीं बल्कि जनभावनाओं के अनुसार इंसाफ़ बाँटा जाएगा तो ये उम्मीद बेमानी है कि देश गाँवों और शहरों में हमारी-आपकी बहन-बेटियाँ सुरक्षित रहेंगी।

बेक़ाबू अपराधों की समस्या किसी एक पार्टी से जुड़ी नहीं है। सभी का राज, जंगलराज जैसा ही है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े सिर्फ़ पत्रकारों और विपक्ष के लोगों का दिल दहलाते हैं। सत्ता प्रतिष्ठान का नहीं। उसे मालूम है कि सच तो आंकड़ों से भी कहीं ज़्यादा भयावह है। कभी-कभार ‘राजनीति’ की नौबत आ जाती है, वर्ना सबको अपनी सत्ता में ‘सब चंगा सी’ वाला मंत्र ही सटीक लगता है। इसीलिए भारतीय राजनीति को समझना होगा कि रोज़ाना के ‘निर्भया कांडों’ की रोकथाम तब तक असम्भव है जब तक पुलिस और अदालतों के दस्तूर में आमूलचूल बदलाव नहीं आएगा।

ऐसे बदलाव की पहली और सबसे बड़ी बाधा है ‘राजनीति का अपराधीकरण’, क्योंकि लोकतंत्र का ये स्थापित सत्य है कि हम जैसे लोगों को चुनते हैं, हमें वैसी ही सरकार मिलती है। जब तक हमारे राजनीतिक दल ‘राजनीति को अपराधीकरण’ से मुक्त करने और पुलिस तथा अदालती रिफ़ॉर्म यानी सुधार लाने के मुद्दे पर चुनाव नहीं लड़ेंगे तब तक हम चाहे किसी भी पार्टी की सरकार बनाते रहें, हमारे दिन नहीं फिरने वाले।

दरअसल, ‘जुमलेबाज़ी का ढोंग’ भारतीय समाज की शाश्वत और सनातन परम्परा रही है। यहाँ बातें तो होंगी ‘वसुधैव कुटम्बकम्’ और ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः’ की, लेकिन दुनिया को कुटुम्ब मानने का उपदेश देने वालों को न तो अल्पसंख्यक मुसलमान और मिशनरी बर्दाश्त होंगे और ना ही दलित समाज के लोग। इसी तरह, ये मानना निपट ढोंग और पाखंड है कि ‘जहाँ नारी पूज्यनीय होगी वहीं देवता रहेंगे’। नारियों को पूज्यनीय बताने वाले वैदिक जुमलों का ही आधुनिक संस्करण है ‘बेटी बचाओ’।

अरे! जिस परम्परा में देवी अहिल्या का सतीत्व हरने वाला सदियों से देवराज के आसान पर विराजमान हो, जहाँ नदियों को माता बताकर उनकी अस्मत तार-तार की जा रही हो, वहाँ ‘बेटी बचाओ’ से बड़ा ढोंग और क्या हो सकता है? इसीलिए आज भारत में छह महीने से लेकर छियासी साल तक की नारियाँ भी महफ़ूज़ नहीं रहीं। माना कि इन अपराधों को चन्द वहशी अंज़ाम देते हैं, लेकिन माता रूपी नदियों की दुर्दशा तो सारा का सारा समाज कर रहा है। इसके लिए भी क्या हम अँग्रेज़ों और तथाकथित विदेश आक्रान्ताओं को ज़िम्मेदार ठहरा सकते हैं?

अँग्रेज़ तो हमारी नदियों को ऐसा जहरीला नहीं बना गये, जैसी वो आज हैं। मुग़ल, तुग़लक, ख़िलज़ी वग़ैरह ने भी हमारी नदियों, जंगलों या पर्यावरण का सत्यानाश नहीं किया तो फिर आज़ादी के बाद हमने पूरी ताक़त से अपने पर्यावरण को लूटने-खसोटने का रास्ता क्यों चुना? एक पार्टी की नीतियों ने यदि सारा सत्यानाश किया तो दूसरी पार्टी की सत्ता ने सुधार क्यों नहीं किया? आज देश में कौन सी ऐसी अहम पार्टी है जिसने सत्ता-सुख नहीं भोगा है?

भारत का बहुसंख्यक हिन्दू समाज और ख़ासकर इसका बुर्ज़ुआ सवर्ण समाज ये साबित कर चुका है कि युगों के बदलने से भी सिर्फ़ हमारे जुमले ही बदलते हैं। हमारी उपमाओं का रस, भाव और अलंकार नहीं बदलता। वर्ना, समाज में नारियों के प्रति होने वाले अपराधों के अम्बार को देखकर क्या अब तक ये मान्यता स्थापित नहीं हो जाती कि उत्तर भारत में कहीं भी, किसी भी मन्दिर या मठ में देवताओं का प्रवास तो छोड़िए, नामोनिशान भी नहीं हो सकता। हमें साफ़ क्यों नहीं दिख रहा कि बेहतर भारतीय समाज या ‘नया भारत’ बनाने में हमारे धार्मिक स्थलों का न तो कोई ‘धार्मिक’ योगदान है और ना ही कोई ‘धार्मिक’ उपलब्धि।

बेहतर होता कि हम प्राणी जगत के अन्य जीवों की तरह नास्तिक ही रहते। कम से कम इंसान को इंसान तो समझते। हम देख चुके हैं कि मज़हबों ने इंसान को और क्रूर तथा वीभत्स ही बनाया है। राजनीति का अपराधीकरण भी इसी मानसिकता का अन्तिम संस्करण है। इससे उबरने के लिए ही ‘सभ्य समाज’ तथा ‘संविधान और क़ानून के राज’ की परिकल्पना की गयी थी। प्रमाणिक पुलिस और न्यायतंत्र इसी की अनिवार्य शर्त है। वर्ना, सब कुछ ‘एक्ट ऑफ़ गॉड’ ही बना रहेगा।

प्राचीन काल में सत्ता प्रतिष्ठान के शीर्ष का प्रतीक राजा या बादशाह, भेष बदलकर जनता का हाल जानने जाता था। क्योंकि मक़सद सच्चाई को जानने का था। आज बीजेपी को हाथरस में किसी का जाना पसन्द नहीं तो बंगाल में ममता को बीजेपी के खेल बर्दाश्त नहीं। अज़ब दस्तूर है! एक की ज़बरदस्ती, नैतिक और लोकतांत्रिक है तो दूसरे की अनैतिक और तानाशाहीपूर्ण। जब राजनीति ऐसे खोखले ढर्रों पर टिकी होगी तो नतीज़े भी खोखले ही मिलेंगे।

‘अन्धेर नगरी चौपट राजा’ वाली व्यवस्था में न्याय के लिए गले के अनुसार फन्दा नहीं बनाया जाता बल्कि फन्दे के साइज़ के मुताबिक़ गले को ढूँढा जाता है। न्याय के लिए सज़ा ज़रूरी है। लेकिन साफ़ दिख रहा है कि आधुनिक न्याय व्यवस्था में इसकी ज़रूरत ही नहीं रही। अपराध हुआ। जाँच हुई। गिरफ़्तारी हुई। ज़मानत मिली। मुक़दमा चला। सभी ससम्मान बरी किये गये। फिर फ़रमान जारी हुआ कि इसे ही न्याय कहो। न्याय समझो। चीख़-चीख़कर दुनिया को बताओ कि यही है असली ‘एक्ट ऑफ़ गॉड’। अब ये आपकी मर्ज़ी है कि आप चाहें तो इस ‘गॉड’ को निराकार ‘ऊपर वाला’ समझें या फिर साकार ‘प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री’। दोनों रास्ते एक ही ‘गॉड’ पर जाकर ख़त्म होते हैं।

एक देश के रूप में, एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में यदि हमें ‘भयमुक्त रामराज्य’ की कल्पना को साकार करना है तो सुपर हाईवे, हर घर में बिजली, शौचालय, 24 घंटा पानी, बुलेट ट्रेन, एयरपोर्ट, टनल, राफ़ेल और आत्मनिर्भर बनने जैसे तमाम आधुनिक और विश्वस्तरीय सुविधाओं वाले ‘विकास’ से पहले हमें ‘क़ानून के राज’ को स्थापित करके दिखाना होगा। पुलिस और अदालत को सर्वोच्च प्राथमिकता देकर, इसमें सबसे अधिक निवेश करके और आमूलचूल सुधार लाकर ही हम समाज को जीने लायक और तरक्की करने के क़ाबिल बना पाएँगे।

हम देख चुके हैं कि राम मन्दिर, अनुच्छेद 370, नागरिकता क़ानून, तीन तलाक़, मनरेगा, सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार जैसे क्रान्तिकारी परिवर्तनों की बुनियाद पार्टियों के चुनावी घोषणापत्रों से ही आयी है। इसीलिए यदि हम भारत के आपराधिक परिदृश्य में बदलाव चाहते हैं तो हमें ऐसी राजनीतिक पार्टी को सत्ता सौंपना होगा जिसका सबसे पहला एजेंडा या चुनावी घोषणापत्र ‘पुलिस और न्यायिक क्रान्ति’ लाने का हो। इस मंत्र को सबसे पहले काँग्रेस को ही थामना होगा। उसे ही पुरखों का पाप धोने का संकल्प दिखाना होगा। क्योंकि भारत में राजनीति के अपराधीकरण के लिए सबसे पहली कसूरवार काँग्रेस ही है।

उत्तर भारत के अपराध-बहुल प्रदेशों में काँग्रेस की दशकों से क़ायम बेहद पतली हालत के लिए ऐतिहासिक ग़रीबी, पिछड़ापन, मनुवादी और सामन्तवादी व्यवस्थाओं से भी कहीं अधिक ज़िम्मेदार इनका चरमरा चुका पुलिस और न्याय-तंत्र है। महिलाओं की सुरक्षा या कथित जंगलराज के लिहाज़ से उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब जैसे राज्यों के हालात में सिर्फ़ उन्नीस-बीस का ही फ़र्क़ है। इन राज्यों में काँग्रेसी सत्ता के दौरान पुलिस और अदालत का जो पतन हुआ वो अन्य पार्टियों की हुक़ूमत के दौरान सिर्फ़ कई गुना बढ़ा ही है, घटा कभी नहीं। क्योंकि अपराधीकरण के मोर्चों पर बाक़ी पार्टियाँ, दशकों पहले ही काँग्रेस को पटखनी दे चुकी हैं।

पुलिस या न्यायिक सुधारों को लेकर देश या राज्यों में काँग्रेसी सरकारों ने अतीत में जैसी लापरवाही दिखायी, उसी का दंश मौजूदा काँग्रेसियों को ख़ून के आँसू रोकर भोगना पड़ रहा है। दमन और उत्पीड़न विरोधी क़ानूनों को संसद और विधानसभा में बनाने के बावजूद ज़मीनी हालात में अपेक्षित बदलाव इसीलिए नहीं हुआ क्योंकि वहाँ बदलते दौर की चुनौतियों से निपटने वाला पारदर्शी और जवाबदेह तंत्र मौजूद नहीं रहा। यही वजह है कि पुलिस वालों के निलम्बन या तबादलों और यहाँ तक कि सरकारों के बदलने से भी पुलिस और कोर्ट के दस्तूर में कोई सुधार नज़र नहीं आया। ज़ाहिर है, राजनीति के अपराधीकरण को मिटाये बग़ैर हम सामाजिक अपराधों पर काबू पाने का लक्ष्य कभी हासिल नहीं कर सकते।

Mukesh Kumar Singh मुकेश कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार
Mukesh Kumar Singh
मुकेश कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)

Tags: AzamgarghBalrampurHathrasHathras Rape CasepoliticsRape case in India
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